चीनी खतरे के बीच ऑस्ट्रेलिया खरीदेगा लंबी रेंज की मिसाइलें: सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद डिफेंस में सबसे बड़ा बदलाव, सरकार खर्चेगी 98 हजार करोड़…
Last Updated on 2 years by City Hot News | Published: April 24, 2023
ऑस्ट्रेलिया अपनी डिफेंस स्ट्रैटेजी में सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद का सबसे बड़ा बदलाव करने जा रहा है। इसके लिए सरकार ने परमाणु हथियारों वाली पनडुब्बियां और लंबी रेंज वाली मिसाइलें खरीदने की योजना बनाई है। इसके लिए प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज की सरकार 98 हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी।
पूरी प्लानिंग के लिए 110 पन्नों की रिपोर्ट तैयार की गई है। इसमें कहा गया है कि मिसाइलों के युग में केवल दुनिया से दूर रहकर अपनी सुरक्षा नहीं की जा सकती है। दरअसल, ऑस्ट्रेलिया एक आईलैंड नेशन है, उसकी जमीनी सीमा दूसरे देशों जुड़ी हुई नहीं है।
तस्वीर ऑस्ट्रेलिया के होमबार्ट पोर्ट पर खड़ी HMAS शीन इलेक्ट्रिक डीजल सबमैरीन की है।
रिपोर्ट में चीन को बड़ा खतरा बताया
डिफेंस में बदलाव के लिए तैयार रिपोर्ट में चीन को बड़ा खतरा बताया गया है। इसमें लिखा है सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद चीन ने सबसे तेजी से अपनी सैन्य ताकत बढ़ाई है। जिसमें किसी तरह की पारदर्शिता नहीं रखी है। ऐसे में हिंद प्रशांत महासागर में चीन की इच्छाओं के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो ऑस्ट्रेलिया के लिए खतरा पैदा कर रहा है।
इस रिपोर्ट पर ऑस्ट्रेलिया के डिफेंस मिनिस्टर रिचर्ड मार्ल्स ने कहा कि हमें एक ऐसी फोर्स की जरूरत है जो चुनौतियों का डटकर सामना कर सके। 500 किलोमीटर से ज्यादा की रेंज वाली मिसाइलें भविष्य में सेना की जरूरतों को पूरा करेंगी।
ऑस्ट्रेलिया को 2030 तक 3 परमाणु पनडुब्बियां देगा अमेरिका
पिछले महीने 13 मार्च को AUKUS देशों की एक मीटिंग हुई थी। इसमें अमेरिका और ब्रिटेन ने सुरक्षा के लिए ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बियां देने का वादा किया था। अमेरिका ने कहा था कि वो जनरल डायनमिक्स की 3 पनडुब्बियों की सप्लाई 2030 तक पूरी कर देगा।
इस फैसले पर चीन ने कड़ी आपत्ति जताई थी। वहां के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि ऑस्ट्रेलिया को पावरफुल हथियार देकर ये देश खतरनाक रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे हैं।
क्या है अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया का समझौता?
ऑस्ट्रेलिया ने दो साल पहले परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियां बनाने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन के साथ सुरक्षा समूह बनाया था। इस गठबंधन (AUKUS) का मकसद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की आक्रामकता को कंट्रोल करना था। 1950 के बाद पहली बार AUKUS के जरिए अमेरिका अपनी न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी को किसी और देश के साथ साझा कर रहा है।